वसुंधरा

किताबों की दुनिया

सोचो साथ क्या जाएगा

जितेन्द्र भाटिया

सस्ती जुमलेबाज़ी के बीच टाटा की ट्रकों के पीछे लिखा यह बहुआयामी सवाल नयी सदी की शुरुआत में हमारी सोच का पर्याय भी हो सकता है। क्योंकि एक पूरी शताब्दी का सफर तय कर चुकने के बाद हम तकनीकी ‘समृद्धि’ से संपन्न इक्कीसवीं सदी के जिस सिंहद्वार से प्रवेश कर चुके हैं, वहाँ शायद हाथ से लिखा हुआ शब्द बहुत देर तक हमारा साथ न दे पाए। आइन रैंड द्वारा रचे किसी साहित्यिक दुःस्वप्न की तरह हो सकता है कि कलम, कागज़, किताबें, सब असंगत करार दिए जाएँ और इलेक्ट्रॉनिक चमत्कार की दुनिया में शायद अपनी समूची चेतना को हम बोले गए शब्द (वॉयस मेल ?) या स्क्रीन पर दिखाई देती जीवंत परछाई तक सीमित रखना सीख जाएँ, या फिर न सीख पाने की मजबूरी में अपने ‘वर्तमान’ से ख़ारिज कर दिए जाएँ।

₹ 1,000 /-

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