September – November
2024
वसुुंधरा
समाचार
8
Special
Literature
Cinema
Art
Jan Vasundhara Sahitya Foundation
Event Time .
सितम्बर 1, 2024
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5:00 अपराह्न
Shiraz
A Romance of India
2023 . 1h 56m
हम एक अरसे से विश्व और भारतीय सिनेमा की चुनी हुई कृतियाँ आपको दिखाते रहे हैं और हमारे मन में रहा है कि सिनेमा के इतिहास के उस हिस्से को पेश करें जिससे हम बहुत परिचित नहीं हैं!
आप सब ने मेरे शैलेन्द्र और सत्यजित राय के ऑडियो-विज़ुअल कार्यक्रमों को काफी पसंद किया था और मैंने इन्हें देश के कई शहरों में भी दिखाया है!
मुझे बताते हुए खुशी है कि वसुंधरा के नए सत्र की शुरुआत हम सिने-इतिहास के उस दौर से कर रहे हैं जिसके बारे में हम सबकी जानकारी सीमित है।
यानी सिनेमा का आरंभ और हमारा मूक सिनेमा 1890-1930 के बीच।
इसकी शुरुआत मैं विशेष रूप से बनाए ऑडियो-विज़ुअल प्रजेंटेशन से करूँगा, जो इस दौर के सिनेमा का एक मुकम्मल चित्र पेश करेगा।
इसके साथ ही हम आपको दिखाएंगे इस दौर की श्रेष्ठतम मूक फ़िल्म ‘शिराज़’ (1928) जिसे ब्रिटिश फ़िल्म संस्थान ने विशेष रूप से digitalise कर इसे अनुष्का शंकर के संगीत से सजाया है, हाल ही में! संभवतः जयपुर में मूक सिनेमा के अवलोकन के साथ यह विशिष्ट फ़िल्म हम पहली बार दिखाएंगे।
‘शिराज़’ हिमांशु राय-निरंजन पाल और जर्मन निर्देशक फ्रांज़ ओस्टेन की विशुध्द भारतीय फिल्म है जो ताजमहल के बनाए जाने पर आधारित कथा को दिलचस्प ढंग से पेश करती है और इसे विश्व की सबसे विकसित मूक फिल्मों में गिना जाता है!
इसके अतिरिक्त मेरे प्रस्तुतीकरण में आप भारत की पहली फ़िल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ और चुनी हुई अन्य फिल्मों के अंश भी देखेंगे।
हमने बहुत मेहनत से इस कार्यक्रम को बनाया है– आइए, हमारे साथ सिनेमा के इस दिलचस्प इतिहास को बांटिए।
– जितेन्द्र भाटिया द्वारा वसुंधरा सदस्यों को लिखित पाती।
कमेंट्स कॉर्नर
तय करना मुश्किल हो रहा है कि फ़िल्म ज़ियादा बढ़िया थी या प्रजेन्टेशन। इस लाजवाब प्रेजेन्टेशन के लिए आपको सलाम भाटिया जी ।-
– लोकेश कुमार सिंह ‘साहिल’
Research is an elixir to rid oneself of ignorance. In an era when Akbar is to be banished from school texts and Gobar-Gau Mootr is to be the only intellectual stimulant of the fundamentalists, the need for scholarly lectures is an important dose for our “fact starved society”. Thankfully, Vasundhara has always striven to be different so as to provide nourishment to the mind and spirit and as such, the Brief History of Silent Era Movies was another fine session in its legacy. All thanks to Jitendra Bhatia ji… once a teacher, always a teacher. His in-depth exposition of the art of film was a pain-staking effort at making things lucid and clear for every layman. That “Shiraaz” came as the icing on the cake was, of course, a pointer to his intellectual prowess.
It was indeed gratifying to see the wonderful camerawork and editing at such an infantile stage of film making, leaving you in no doubt that talent existed in every era even though the recognition may not have been in commensuration with their efforts. For all the so called branding of superstars, I think the real “STELLAR STARS” were the pioneers who took risks and laid the rules of film grammar, technique and foundations of film making. Hats off to Himanshu Rai, Devika Rani, Franz Osten and Niranjan Pal and many of their ilk who led us to such a golden path of artistic voyage and fulfillment.
What was immensely pleasing was to identify ramparts of Amer, City palace, Old Legislative Assembly, Vidyadhar Bagh and several other monuments of Jaipur in the various scenes. Despite its length, the film was pretty engaging. The flaws, apart from length, were the addition of extensive musical pieces music by the BFI restoration team and several mistake in spelling whereby, in credits, Cast was spelt as CASTE! Nevertheless, it was a fine monsoon evening that was very well spent. Kudos Bhatia Ji, Neeraj Goswamy and the cherubic Chetna!
Regards, Deepak Mahaan
Loved Jitendra ji’s presentation on Silent Cinema in the Indian context. Discovered a number of interesting pieces of information – Some made me happy, while others were not so pleasant.
Luminaries such as Dada Saheb Phalke, Himanshu Roy, Niranjan Paul, and many others were incredibly ahead of their time. Their achievements are truly breathtaking, considering the newness of technology, limited funding, and non-existent distribution channels they had to work with. Despite these challenges, they managed to overcome them spectacularly. Within just two decades, the subjects and storylines in Indian cinema evolved rapidly, transitioning from mythology to love ballads and eventually incorporating political overtones. These changes were so significant that the British government had to introduce censorship laws.
The movie SHIRAZ, which came after, also managed to captivate everyone. Its compelling narrative, lavish sets, and intriguing story arc were truly impressive. Even after a century, most contemporary films would pale in comparison, if we disregard the technological advancements (color film, sound mixing etc.) that are now readily accessible.
The fact that a small percent of this legacy survives is something to bemoan. And hopefully in future the discussion will raise some sharp questions to the politicians/custodians who puff up their chest talking about India’s rich heritage, blah blah blah.
Hats off to Neeraj ji and Chetna for pulling everything off for the Vasundhara kutumb.
Just a word of caution, if this trend continues, we will soon need an indoor football stadium to accommodate the growing number of viewers!
– Ajay Goel
मूक फिल्म ‘शिराज़’ को फिर देखा
गंभीर सिनेमा की समझ बढ़ाने के लिए सुधि लोग बड़े चाव से वसुंधरा समूह में जाते हैं जहां प्रगतिशील विचारों वाले लेखक जितेंद्र भाटिया साहिब दुर्लभ फिल्में दिखाते हैं। कल शाम उन्होंने हिमांशु राय की 1928 की मूक फिल्म ‘शिराज़’ प्रदर्शित की। इस फिल्म को 2017 में ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट ने restore करके नया जीवन दिया जो अब उन इनी गिनी भारतीय मूक फिल्मों में एक है जो संरक्षित रह पाई है।
यह फिल्म जर्मन और भारतीय लोगों के सहकार के साथ ही भारतीय फिल्मों के अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन का शुरुआती उदाहरण भी है। यह फिल्म हम पहले भी अनेक बार देख चुके हैं। मगर ऐसी विरासतों को फिर फिर देखने से भी मन नहीं भरता।
जर्मन निर्देशक फ्रैंज़ ऑस्टिन, भारतीय निर्माता अभिनेता हिमांशु राय तथा ब्रिटेन फिल्म उद्योग में फिल्में लिख रहे लेखक निरंजन पॉल की तिगड़ी ने Light of Asia, Shiraz और Throw of Dice तीन महान मूक फिल्में बनाई।
ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट (बीएफआई) आर्काइव द्वारा पूरी तरह से बहाल करने के बाद अक्टूबर 2017 में बार्बिकन, लंदन में लंदन फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर के दौरान सितार वादक रविशंकर की बेटी अनुष्का शंकर को फिल्म में लाइव संगीत देने का जाप दिया गया था। इसके बाद इसे भारत के एक संक्षिप्त लाइव दौरे पर लाया गया, जहां अनुष्का और संगीतकारों ने पांच भारतीय शहरों में इसकी स्क्रीनिंग के साथ लाइव बजाया था जैसा कि मूक फिल्मों के प्रदर्शन के ज़माने में होता था।
इस फिल्म को फिर ब्रिटेन में सिनेमा स्क्रीनिंग के लिए अनुष्का शंकर के म्यूजिकल स्कोर के साउंड ट्रैक के साथ रिलीज किया गया जो DVD और Blue Ray पर भी बाजार में उपलब्ध कराया गया। अब यह यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।
कल भी वसुंधरा में भाटिया साहिब ने यह फिल्म सितार और तबले तथा अन्य वाद्यों के पृष्ठभूमि संगीत से सरोबार साउंड ट्रैक के साथ प्रदर्शित की।
हम उन लोगों में से हैं जो विरासत की चीजों से छेड़छाड़ करना पसंद नहीं करते। मूक फिल्म में ध्वनि जोड़ना उसकी पवित्रता को नष्ट करना ही हम मानेंगे। अनुष्का के सितार की झंकार और उनके साथ में तबले की थाप कितनी ही प्रभावी क्यों न मान ली जाए उससे यह मूक फिल्म silent film से sound film बन गई, भले ही उसमें संवाद सुनाई न देते हों।
कह सकते हैं कि जोड़ा गया संगीत से ही आज के दर्शकों को दो घंटे बांधे रखा जा सकता है मगर उससे मूक फिल्म का अनुभव खत्म हो जाता है। खैर यह तो हमारे निजी विचार हैं जिन्हें हम पुरानी श्याम-श्वेत फिल्मों को रंगीन करने पर भी व्यक्त करते रहे हैं।
– राजेन्द्र बोरा जी
Hello Team Vasundhara,
Shiraj was one of the best cinematic experiences I’ve had It was so engrossing. So well made. Had all the ingredients of a great movie. Just thrilled to have seen it. Our best wishes to Vasundhara Team. Keep giving us more gems like these. Thanks again 🙏🙏
– Ips Amandeep ji
Thank you for your views. We are privileged to have such sensitive and involved viewership for our programmes.
In future, we will do another programme on the advent of talkies along with an outstanding representative film from that era.
As always, our team is humbled by your overwhelming response and your thought provoking comments. Thank you one and all !!
– Jitendra Bhatia
Thank you very much. It was my first visit to Vasundhara. I found it very rewarding. -sunny sebastian
– Sunny Sebastian
Event Time .
सितम्बर 22, 2024
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5:00 अपराह्न
Casablanca
1942 . 1h4 0m
कासाब्लांका एक अद्भुत फिल्म रही। जिसने हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।
Casablanca is 1942 timeless masterpiece which is studded with Stars like Humphrey Bogart and Ingrid Bergman
on 22nd September ’24, Sunday at 5 pm
Nominated for 8 Academy Awards and won 3
1.Best Picture
2.Best Director
3.Best Adapted Screenplay
Event Time .
अक्टूबर 6, 2024
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4:30 अपराह्न
Tansen
1943 . 2h 2m
6 अक्टूबर 2024 रविवार शाम 4.30 बजे
सितंबर माह में हमने सन 1928 में बनी फिल्म शीराज देखी उसके बाद 1942 में बनी कासाब्लांका। तभी हमारे कुछ सम्मानित सदस्यों ने कोई पुरानी हिंदी फिल्म भी देखने की इच्छा जाहिर की थी।
इस रविवार शाम हमनें देखी हिंदी सिनेमा जगत के अनूठे कलाकार और बेजोड़ गायक स्व कुंदन लाल सहगल साहब की 1943 में बनी संगीतमय फिल्म
तानसेन
संगीतकार खेमचंद प्रकाश के अविस्मरणीय संगीत से सजी ये फिल्म बरसों बरस याद रहने वाली फिल्म ही।
जड़ें कौन देखना चाहता है, क्योंकि जड़ें इतनी दिलकश नहीं होती जितना उनसे सिंचित पेड़ और उन पेड़ों पर लगने वाले फूल और फल होते हैं।
पुरानी फिल्में देखना भी अपनी जड़ों की ओर लौटना ही है। हमें खुशी है कि वसुंधरा मंच के परिवार जन इन जड़ों को देखने के लिए भी उतने ही लालायित हैं जितने वो उनसे पनपे फूल और फल देखने को रहते हैं।-नीरज गोस्वामी
तानसेन 1943 में फ़िल्म ‘किस्मत’ के बाद उस वर्ष की सबसे बड़ी सफलता थी जिसमें पंडित इंद्र के लिखे और खेमचंद प्रकाश के संगीतबद्ध किये 13 गीत थे जिनमें सबसे प्रमुख आवाज़ कुन्दनलाल सहगल की थी! जयंत देसाई द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म हमारे स्वतंत्रता पूर्व के फ़िल्म इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है! इसे कल देखें, वसुंधरा में एक बिल्कुल नए अंदाज़ में!-
– जितेंद्र भाटिया
शांति पर्व पर चर्चा
Event Time .
दिसम्बर 9, 2024
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10:21 पूर्वाह्न
सार्थक कार्यक्रम. बधाई. आशीष त्रिपाठी जी से मिल कर और सुन कर बहुत अच्छा लगा. पुनः हार्दिक बधाई.- राघवेंद्र रावत जी
एक अच्छे कार्यक्रम के लिए बहुत बहुत बधाई।
ऐसे सार्थक कार्यक्रम निरंतर होते रहने चाहिए।-वीणा करमचंदानी
Event Time .
अक्टूबर 26, 2024
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4:30 अपराह्न
D E K A L O G
One and Two
1988 . 53m / 57m
शनिवार 26 अक्टूबर 4.30 बजे
देश- विदेश के श्रेष्ठतम सिनेमा दिखाने के क्रम में इस बार शनिवार 19 अक्टूबर को हम दिखाने जा रहे हैं पोलैंड के महान फिल्मकार क्रिस्टोफ किज़लोस्की की सबसे प्रसिद्ध DEKALOG श्रृंखला की दस में से पहली दो कड़ियाँ Dekalog 1 और 2 जिन्हें आप किसी भी हालात में मिस न करें! इस श्रृंखला के बारे में दुनिया भर के समीक्षकों की राय है कि किसी भी देश की किसी भी भाषा में टेलीविज़न के लिए इससे बेहतर सिनेमा नहीं बना है! पचास पचास मिनट की इन फिल्मों की कहानियां अपनी रोचकता में भी कई सवाल हमारे सामने छोड़ जाती हैं।
Thank you for introducing us to these remarkable films last evening.
I loved the way the Director framed everyday issues alongside moral and ethical dilemmas that often lack clear resolutions. While religion is frequently presented as a source of eternal wisdom, its interpretation can certainly be debated.
From what Google tells me, these films were created in late 1980s Poland, during a time when the Solidarity movement was gaining momentum, communism was beginning to decline, and Western influences had yet to fully penetrate the society. I’m definitely going to explore the remaining eight installments (available on YouTube).
– Ajay Goel
Event Time .
नवम्बर 10, 2024
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4:30 अपराह्न
Dastak
1970 . 2h 25m
फिल्म दस्तक के माध्यम से याद करते हैं।
उर्दू के मशहूर साहित्यकार जो अलबेले अनूठे विद्रोही फिल्म कार भी रहे, हिंदी फिल्म जगत के बेजोड़ अदाकार और एक ऐसी अदाकारा जो जिस तेजी से शिखर पर पहूंची उसी तेजी से नीचे गिर गईं का संबंध नवंबर माह से है।
संयोग से ये तीनों 1971 में एक साथ एक फिल्म में आए और वो फिल्म हिंदी सिनेमा के इतिहास की क्लासिक फिल्मों में से एक मानी जाती है।
इस फिल्म को तीन नेशनल अवार्ड मिले। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और सर्वश्रेष्ठ संगीतकार।
आप ठीक समझे, यह कालजयी फिल्म दस्तक ही है । जिसे निर्देशित करने वाले राजिंदर सिंह बेदी 11 नवंबर 1984 को और इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का नेशनल अवार्ड जीतने वाले संजीव कुमार 6 नवंबर 1985 को हमें छोड़ कर चले गए।
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड जीतने वाली रेहाना सुल्ताना का जन्म 19 नवंबर 1950 को हुआ था।
बेदी साहब, संजीव कुमार, रेहाना सुल्ताना और मदनमोहन जी को आइए हम सब मिलकर :
10 नवंबर 2024, रविवार
शाम 4.30 बजे
वसुंधरा मंच
Event Time .
नवम्बर 24, 2024
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4:30 अपराह्न
LA LLORONA
THE PAST WILL HAUNT YOU
2019 . 1h 37m
रविवार 24 नवंबर को शाम 4.30 बजे हमने वसुंधरा सदस्यों को दिखाई इंका आदिवासियों के मध्य अमेरिका प्रदेश ग्वाटेमाला की एक ऐसी स्पेनिश फ़िल्म जिसने अपनी सार्थकता से हमें रोमांचित कर दिया।
- देश के क्रूर तानाशाही गोरे शासक के सिर हज़ारों निहत्थे आदिवासी पुरुष-स्त्रियों-बच्चों की हत्या का संगीन आरोप है और उसे मृत्युदंड दिया जाना सुनिश्चित है…
- लेकिन उच्चतम न्यायालय जब मुख्य गवाहों के पलट जाने और सबूतों के अभाव तथा उसके बुढापे का हवाला देकर उसे छोड़ देता है तो हज़ारों आदिवासी प्रतिरोध में उसका महलनुमा घर में छिपे उसे तथा उसके परिवार को चारों ओर से घेर लेते है…
- महल के सारे स्थानीय कर्मचारी भी विरोध में नौकरी छोड़ चले जाते हैं…
- ऐय्याशी का अभ्यस्त परिवार नए नौकर तलाशता है पर कोई इसके लिए तैयार नहीं…
- ऐसे में एक स्त्री नई नौकरानी महल में काम करने के लिए तैयार हो जाती है…
- लेकिन क्या वह औरत उस भीड़ के सदियों के शोषण और अत्याचार का बदला लेने के लिए उस महल में भेजी गई थी?
- इससे आगे की रोमांचकारी कथा है युवा निर्देशक जयरो बुस्तमाने की 2019 की फ़िल्म– ‘रोती हुई स्त्री’ में रहा।
La Llorona
इसका शीर्षक लातिन अमेरिका की उस अत्यंत प्रसिद्ध किंवदंती पर आधारित है जिसमें वह स्त्री अपने दोनों बच्चों की हत्या के बाद प्रतिशोध में भटकती है!
पिछले हफ्ते रविवार को वसुंधरा मंच (जयपुर) में स्पेनिश मूवी ‘ला ल्लोरोना’ (रोती हुई स्त्री) देखने का अवसर मिला। हालांकि, ये दूसरी मूवी थी जो वसुंधरा मंच में देखी। इससे पहले जॉर्जिया के समुद्री तट पर बनी एक क्रूर तानाशाह की मूवी ‘द प्रेसिडेंट’ देखने का अवसर भी मिला मिला था।
पढ़ने-लिखने के सिलसिले में वसुंधरा मंच में आना-जाना लगा रहता है। इसी बहाने साहित्य के विद्वानों से भी बहुत कुछ सीखने का अवसर मिल जाता है। चलिए, बढ़ते है मूवी की तरफ…
किताबों पर रखे प्रोजेक्टर की रोशनी सामने सफेद दीवार पर पड़ती है और शुरू होती है ‘ला ल्लोरोना’…
एक बुजुर्ग महिला काफी समय तक स्पेनिश में तांत्रिक विद्या का मंत्र पढ़ती है। आस-पास काफी महिलाएं हैं। शुरुआती सीन से आभास होता है कि यह फ़िल्म जरूर डरावनी होगी।
फिर…
एक महिला की चीखें हवेली के अंदर गूँजती हैं, जो रात की शांति को भंग कर देती है। जनरल एनरिक मोंटेवेर्डे (जूलियो डियाज़) यह उम्मीद करते हुए जागता है कि यह उसकी पत्नी होगी, लेकिन नहीं, वह उसके बगल में चुपचाप सो रही है। वह उठता है और रिवॉल्वर व बंदूकों से भरी अपनी कोठरी के पास रुकता है और बाथरूम की ओर जाता है। वह बाथरूम में बहते पानी को बंद करके संदेह से इधर-उधर देखता है। अभी भी कुछ गड़बड़ है, रोने की आवाज़ फिर से शुरू हो जाती है जो घर के दूसरे हिस्से से गूंजती है।
जनरल सावधानी से पिस्टल तानकर चलता है। उसकी नजर एक आकृति पर पड़ती है और वह गोली चला देता है, जिससे घर में हंगामा मच जाता है। वह एक नौकर और एक सुरक्षा गार्ड से उलझ जाता है। जनरल ने अपनी पत्नी को, जो अंधेरे में अपने पति का पीछा कर रही थी, दुर्घटनावश लगभग गोली मार दी थी। वह आश्वस्त है कि उसके महलनुमा घर में एक महिला के रोने की आवाज़ वास्तविक थी। भले ही किसी और ने उसे नहीं सुना हो।
राजनीतिक नाटक और अलौकिक रोमांच के साथ रहस्य का मिश्रण, जायरो बुस्टामेंटे की ‘ला ल्लोरोना’ एक रोती हुई महिला की भूतिया आकृति की क्लासिक डरावनी कहानी का एक आधुनिक वर्णन है जिसने अपने बच्चों को मार डाला। ग्वाटेमाला के क्रूर सैन्य नेताओं और स्वदेशी जनजातियों को मिटाने के उनके प्रयासों के इतिहास की कहानी को रेखांकित करते हुए ‘ला ल्लोरोना’ को नई भावनात्मक जमीन मिलती है। यह सिर्फ एक खौफनाक कहानी नहीं है, बल्कि अन्याय का दर्दनाक प्रतिबिंब है।
यहां तक की जब वर्तमान ग्वाटेमाला सरकार जनरल को उसके अपराधों के लिए सजा दिलाने का प्रयास करती है, तो वह सबूतों के आभाव में किसी भी नतीजे से बच जाता है। प्रदर्शनकारी उनके आलीशान घर पर उतरते हैं, नारे लगाते हैं, ढोल बजाते हैं और अपनी बात सुनाने की पूरी कोशिश करते हैं। कुछ समय के लिए जनरल और उनका परिवार बिना किसी रुकावट के अपना जीवन व्यतीत करते हैं (कभी-कभी टूटी हुई खिड़की और दूरी में अंतहीन शोर को छोड़कर) जब तक की उनके अधिकांश स्वदेशी कर्मचारी एनरिक के बढ़ते अनियमित व्यवहार से डरकर बाहर नहीं निकल जाते।
एक नई घरेलू नौकरानी – अल्मा जिसके नाम का स्पेनिश में अर्थ ‘आत्मा’ है, परिवार की मदद करने के लिए आती है, लेकिन उस तरह से नहीं जिस तरह से वे उम्मीद करते थे।
‘ला लोरोना’ भले ही अन्य डरावनी फिल्मों की तुलना में कम आश्चर्य और डर से भरी हो। लेकिन बुस्टामेंटे प्रेतवाधित कहानी का उपयोग हमें डराने के लिए नहीं, बल्कि अपने दर्शकों को इस बात पर विचार करने के लिए मजबूर करने के लिए करते हैं कि वे किस तरह से उत्पीड़न में शामिल हैं। हमने भले ही जनरल की तरह गंभीर अपराध नहीं किए हों, लेकिन परिवार के अन्य सदस्यों में से प्रत्येक सदस्य अलग-अलग स्तर की मिलीभगत का प्रतिनिधित्व करता है, कारमेन की कट्टर कट्टरता से लेकर सारा के असंवेदनशील सवालों तक।
आखिरकार जनरल अपनी बीमारी के कारण दम तोड़ देता है। ला ल्लोरोना रहस्य और कल्पना की एक ऐसी कहानी है जो आपके केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को झटका देने के बजाय आपकी त्वचा के नीचे घुसना पसंद करती है, जो केवल पूर्वाभास की लगभग दम घुटने वाली भावना को और अधिक शक्तिशाली बनाती है।
मूवी एक संकेत है, एक निश्चित सीमा तक पहुंचने के बाद आप तानाशाही, अंधा इनकार और गलीचे के नीचे मृतकों की आत्माओं जैसी चीजों को नजरअंदाज या मिटा नहीं सकते हैं। न ही ऐसा होना चाहिए, फ़िल्म सुझाव देती है। इसे शुद्ध क्रोध के रोने के रूप में दोगुना करने के लिए बनाया गया है। ला ल्लोरोना सभी बच्चों के लिए एक सुर में रो रहा है जिन्होंने उन लोगों के हाथों खो दिया जिन्होंने उनकी रक्षा करने की शपथ ली थी।
– काका सिंह
(अन्य लेखों की सहायता से लिखा लेख)
Comments Section
Excellent film. Best I have watched in Vasundhara. Thanks to team 🙏