December 2024 – March 2025

2024 – 2025

वसुुंधरा

समाचार

9

चार्ली चैपलिन दिवस

विशेष

Literature

Cinema

Art

Jan Vasundhara Sahitya Foundation

Event Time .

दिसम्बर 8, 2024

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4:30 अपराह्न

A Death in The Gunj

THE PAST WILL HAUNT YOU

2016 . 1h 50m

वसुंधरा मंच पर देश-विदेश की उत्कृष्ट फिल्में दिखाने की परंपरा में एक ऐसी भारतीय अंग्रेज़ी-बंगला-हिंदी फ़िल्म (अंग्रेज़ी subtitles के साथ) और जुड़ हुई जिसके लिए इसकी निर्देशिका-अभिनेत्री को 2016 में नई निर्देशिका की पहली फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार मिला है और  जिसे उस वर्ष के फ़िल्म पुरस्कार में 8 nominations मिले, जिसमें से 3 उसने जीते! पूरे विश्व के विभिन्न फ़िल्म उत्सवों में दिखाई जा चुकी और प्रशंसित यह फ़िल्म है अपर्णा सेन की बेटी कोंकोणा सेन शर्मा की निर्देशित।

A Death In The Gunj

जिसमें तनूजा, ओम पुरी, रणवीर शूरी, विक्रांत मैसे, तिलोत्तमा शोम,कल्कि और अन्य कलाकारों का सुंदर अभिनय है!

वर्ष 2024 के आख़िरी माह की 8 तारीख़ को शाम 4.30 बजे फ़िल्म A DEATH IN THE GUNJ की गूंज फ़िल्म अवधि 1.45 घंटे के बाद भी दर्शकों के भीतर बनी रही।

राँची के नज़दीक के जंगलों में इस फ़िल्म को 2016 का फ़िल्मफ़ेअर श्रेष्ठ फोटोग्राफी पुरस्कार भी मिला है!

फ़िल्म के बारे में समीक्षकों की राय…

“It is a debut feature that leaves a haunting air of melancholy in its wake”

– Stephen Dalton

Hollywood Reporter

“Konkona’s debut is a marvellously measured film, where each elements is staggeringly synchronous with the other”

– नम्रता जोशी:

The Hindu

It’s one of the best films of the year that you’ll find hard to shake off in a hurry!”

– Rajeev Masand

मुझे स्वयं इसे देखते हुए सत्यजीत राय की ‘अरण्येर दिन रात्री’ (Day and Night of the Forest) का स्मरण हो आया जिसमें सिमी गरेवाल की आदिवासी लड़की के रूप में सुंदर भूमिका थी! लगता है अपनी शैली में कोंकणा ज़रूर उस फिल्म से प्रभावित हुई होगी!
फ़िल्म के शीर्षक में Gunj दरअसल मेकलास्कीगंज का संक्षिप्त नाम है। यह झारखंड का वह प्रदेश है जहां की यह कहानी है!

– जितेंद्र भाटिया

Event Time .

दिसम्बर 22, 2024

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4:30 अपराह्न

रफ़ी साहब

इन्द्रधनुषी विविधता से परिपूर्ण गायिकी

रफ़ी साहब के सौंवे जन्म दिन (24 दिसंबर 2024) को वसुंधरा में हम सबने रविवार 22 दिसंबर 2024 को मनाया। सर्द शाम 4.30 बजे हमारे साथी  सदस्य दीपक महान ने रफ़ी साहब के कुछ अद्भुत, सर्वकालिक और इद्रधनुषी विविधता से परिपूर्ण गीत दिखाए जिन्हें देख और श्रवण कर, वसुंधरा सदस्य मंत्रमुग्ध हो गए।

कुछ कलाकार बहुत विशिष्ट होते हैं. उनकी कला की विविधता, आध्यात्मिक गहराई, आलौकिक सौन्दर्य और उससे उत्पन्न आत्मिक सुकून को शब्दों में व्यक्त करना या नापना असंभव होता है. ऐसे ही थे हम सब के प्रिय रफ़ी साहब जो एक असाधारण गायक होने के साथ-साथ, बहुत ही शालीन और सूफी प्रकृति के धनी थे!

रफी साहब के सौंवे जन्मदिन पर वसुंधरा मंच पर दीपक महान, गुरमिंदर सिंह पुरी

दीपक महान
गुरमिंदर सिंह पुरी

कमेंट्स

रफी के दीवानों की महफिल

आज शाम ‘वसुंधरा’ में मोहम्मद रफी की जयंती पर उत्सव मनाने के लिए संगीत रसिकों की महफिल सजी जिसमें भाई दीपक महान ने रफी के गाये वे रोमेंटिक मूड के गाने प्रस्तुत किए जो अब कम बजते हैं।

पास बैठो तबीयत बहल जाएगी, मौत भी आ गई हो तो टल जाएगी’ (पुनर्मिलन/1964), तथा ‘तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साए में शाम कर लूंगा’ (नौनिहाल/ 1967) जैसे गानों से लेकर ‘हमको तो बरबाद किया है’ (गुनाहों का देवता/1967), और ‘दुनिया पागल है और मैं दीवाना’ (शागिर्द/1967) से होते हुए अंत में ‘ऐ मोहब्बत जिंदाबाद’ (मुगले आज़म/1960) पर जाकर बात खत्म हुई।

अधिकांश गानों का चयन 1960 के दशक का था जो वहां मौजूद दर्शक श्रोताओं का किशोर वय का समय था जिनमें उनका अतीत प्रेम उमड़ना स्वाभाविक ही था।

महान साहब और गुरविंदर पुरी साहब ने रफी के दो-दो गानों की लाजवाब प्रस्तुति करके महफिल का रंग शुरू से ही जमा दिया।

– राजेन्द्र बोड़ा

चार्ली चैपलिन दिवस

जन वसुंधरा साहित्य मंच मनायेगा अब प्रत्येक वर्ष के आखिरी रविवार को चार्ली चैपलिन दिवस के रूप में  !

प्रत्येक वर्ष के आखिरी रविवार को चार्ली चैपलिन दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत हुई 29 दिसंबर 2024 से!

Event Time .

दिसम्बर 29, 2024

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4:30 अपराह्न

प्रत्येक वर्ष के आखिरी रविवार को चार्ली चैपलिन दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत हुई 29 दिसंबर 2024 से! चैपलिन को लेकर वसुंधरा सदस्यों से रूबरू हुए दीपक महान, विशाल विक्रम और जितेंद्र भाटिया जी!

चार्ली पर संवाद करते हुए

जितेंद्र भाटिया

विशाल विक्रम 

दीपक महान

दुनिया के महानतम कलाकारों और निर्देशकों में से एक, जिनका दुर्भाग्य रहा कि उनकी कार्यभूमि अमेरिका ने अंतिम वर्षों में उनके मानवतावादी विचारों ( जिनपर रूस समर्थक कम्युनिस्ट होने का गलत लेबल लगाकर) उन्हें निष्कासित किया और चैपलिन ने कभी अमेरिका न लौटने का प्रण करते हुए अपने जीवन के अंतिम वर्ष सुदूर स्विट्ज़रलैंड में अपने परिवार के साथ गुज़ारे, जहां 1977 में क्रिसमस के दिन उनका निधन हुआ! चार्ली चैपलिन का मूक युग से पचास के दशक तक फैला सिनेमा इस माध्यम को एक नया आयाम देता है। उनकी आत्मकथा दुनिया की श्रेष्ठ किताबों में से है जिसपर रिचर्ड attenburough ने फ़िल्म भी बनाई है। इधर के समय में उनपर बनी फिल्मों में से सबसे चर्चित है उनकी 2022 में release हुई 

Peter Middleon की फ़िल्म जिसपर The Guardian में Peter Bradshaw ने लिखा है

New archive material brings Chaplin’s unparalleled celebrity, downfall and the women in his life into greater focus!

– Peter Bradshaw, The Guardian

– जितेंद्र भाटिया

THE REAL

Charlie Chaplin

1h.54m

हमें प्रसन्नता है कि हमारे पास सार्वभौमिक फिल्मकार चैपलिन का सम्पूर्ण सिनेमा उपलब्ध है जिसे हम आगे दिखाते रहेंगे!

हर सिनेमा प्रेमी के देखने योग्य फिल्म

अत्यंत गरीबी में पले- बढ़े चैपलिन महान मानवतावादी, लेखक और फ़िल्म निर्देशक होने के साथ-साथ दुनिया के बेहतरीन विदूषक भी थे, जिनकी tramp, kid, और कुचले हुए मनुष्यों/ जानवरों के प्रति अपार सहानुभूति की तस्वीर हमें हंसाने के साथ साथ हमारी आंखों में आंसू भी ले आती थी!

Event Time .

जनवरी 12, 2025

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3:30 अपराह्न

Dor

2006 . 1h 50m

वसुंधरा मंच पर रविवार 12 जनवरी शाम 3:30 बजे की फ़िल्म रही ‘डोर’

गुलाबी नगरी की गुलाबी ठंड और गुलाबी शहर की  पतंगबाजी से कौन परिचित नहीं!

मकर संक्रांति पर जयपुर का आकाश पूरी तरह पतंग मय हो जाता है लेकिन भला बिना डोर के पतंग उड़ सकती है? इसीलिए हमने पतंगबाजी के माह जनवरी में जिस फिल्म का चयन किया उसका नाम  रहा डोर

रविवार 12 जनवरी को वसुंधरा मंच पर हमनें देखी “नागेश कुकुनूर” द्वारा निर्देशित एक अद्भुत फिल्म डोर

दो बिल्कुल अलग समुदाय और प्रदेश की स्त्रियों पर आधारित इस फिल्म में कोई हीरो नहीं है। इसमें असली हीरो है इसकी कहानी, निर्देशन और अभिनय!

ये हौसला कैसे झुके
ये आरज़ू कैसे रुके
मंज़िल मुश्किल तो क्या
धुंदला साहिल तो क्या
तन्हा ये दिल तो क्या

डोर फ़िल्म के एक ख़ूबसूरत गीत की कुछ पंक्तियां पाठकों के लिए …!

Event Time .

जनवरी 26, 2025

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4:00 अपराह्न

Everybody’s Fine

Original title: Stanno tutti bene

1990. 1h 58m

आइए अब आपको ले चलें ‘वसुंधरा’ की  अत्यंतआकर्षक फ़िल्म  की ओर–

एक  सुंदर संवेदनशील फ़िल्म 
“हम सब ठीक है”
“Stanon Tutti Bene”
“EVERYBODY’S FINE”

यह नाम है उस प्रसिद्ध इतालवी फ़िल्म का जिसके निर्देशक Giuseppe Tornatore (जिनकी Cinema Paradiso आपको याद होगी) को 1990 में इसके लिए Cannes Film Festival का Prize of the Ecumenical Jury मिला और बाद में यह फ़िल्म पूरी दुनिया में बेहद चर्चित रही–

इतनी कि 2009 में हॉलीवुड ने Robert De Niro के अभिनय के साथ यह फ़िल्म दुबारा बनाई, फिर इसी नाम से! और 2016 में  चीन के निर्देशक Zhang Meng ने फिर इसे बनाया, एक बार फिर उसी नाम से! ( हमारी अपनी चिरंतन ‘देवदास’ की तरह!) अब सुनने में आ रहा है कि हमारा बॉलीवुड– मलयालम और तमिल फ़िल्म  जगत के सहयोग से इसे तीन भारतीय भाषाओं में लाने की योजना बना रहा है!

लेकिन Tornatore की मूल इतालवी फ़िल्म के बात कुछ और ही है– जिसमें प्रसिद्ध अभिनेता और वसुंधरा के अत्यंत प्रिय Marcello Mastroianni ने अपने जीवन के श्रेष्ठतम किरदार को निभाया है!

Everybody’s Fine – हममें से किसी की या हम सबके परिवार की कहानी हो सकती है!

ओपेरा प्रेमी रिटायर्ड बूढ़ा विधुर स्क्यूरो (मार्सेलो) मरने से पहले अपनी पांचों संतानों के हालचाल जानने के लिए  बिना बताए बारी बारी उनके पास जाने का फैसला लेता है और उसके बाद क्या होता है, यही इस सर्वप्रिय दिल को छू लेने वाली फ़िल्म की कहानी है!

रविवार 26 जनवरी को शाम 4 बजे हमारे साथ वसुंधरा सदस्यों द्वारा देखी गई हॉलीवुड या चीन की नकल नहीं– इटली की मूल अविस्मरणीय फ़िल्म Everybody’s Fine

कमेंट्स

फ़िल्म बहुत अच्छी थी.  स्क्रीनिंग से पहले जितेन्द्र भाटिया जी का  वक्तव्य महत्वपूर्ण था जो फ़िल्म को समय काल के सापेक्ष समझने में मदद करता  है. हार्दिक बधाई टीम वसुंधरा.

– वसुंधरा सदस्य 

Event Time .

फ़रवरी 9, 2025

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4:00 अपराह्न

Goopy Gyne Bagha Byne

The Adventures of Goopy and Bagha

1969. 2h 12m

इस दिन हमनें सत्यजित राय की सबसे लोकप्रिय, सबसे संगीतमय, बच्चों से लेकर बड़ों तक की सबसे पसंदीदा फ़िल्म–

‘गूपी गाइन  बाघा बाइन’
The Adventures of Goopy and Bagha

यह बंगला भाषा की फ़िल्म पूरी दुनिया में पहली बार विशेष रूप से वसुंधरा सदस्यों ने हिंदी subtitles के साथ देखी। इसका मूल रहा कि भाषा का पूरा आस्वाद साथी सदस्यों तक पहुँच पाया!

इस फ़िल्म का यह हिन्दी subtitles वाला संस्करण वसुंधरा की अपनी पहल है! दुनिया में पहली बार!

देश- विदेश में अनेकानेक पुरस्कार और कई फ़िल्म उत्सवों में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का खिताब जीतने वाली यह फ़िल्म सत्यजित राय ने मूल रूप से बच्चों के लिए बनाई थी। लेकिन सभी वर्ग के दर्शकों के बीच यह असाधारण रूप से लोकप्रिय रही। अकेले कोलकाता सिनेमा घरों में यह पूरे एक वर्ष तक चली! बंगाल में तो आज भी बच्चा- बच्चा इसके गीतों को जानता है! हिंदी में इस फ़िल्म के आधार पर एक animated फ़िल्म भी बनी है जिसे गुलज़ार ने लिखा था! पर मूल बंगला सत्यजित राय की फ़िल्म की बात कुछ और ही है!

साठ के दशक में इस फ़िल्म से पहले सत्यजित राय ‘पथेर पांचाली त्रयी’, ‘जलसाघर’, ‘ महानगर’ और ‘चारुलता’ जैसी गंभीर फिल्में बनाकर पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुके थे, जब लोगों और विशेष रूप से उनके बेटे संदीप राय ने उन्हें एक हल्की फुल्की बाल सुलभ फ़िल्म बनाने का आग्रह किया, जिसके परिणामस्वरूप 1969 में उन्होंने अपने दादा उपेन्द्रकिशोर चौधरी की कहानी को GGBG का रूप दिया।

यह सत्यजित राय की सबसे लोकप्रिय, सबसे सर्वप्रिय फ़िल्म है जिसे आप जितनी बार चाहे देख सकते हैं!

इस फ़िल्म की सबसे खास बात यह है कि इसकी पटकथा, इसके गीत, उनका संगीत, वेशभूषा, निर्देशन और टाइटल्स में दिखने वाले रेखाचित्र- सब सत्यजित राय ने स्वयं बनाए है! यहां तक कि फ़िल्म के एक पात्र के लिए उन्होंने अपनी आवाज़ भी दी है जिसे वसुंधरा सदस्यों को पहचानना था। लेकिन उपस्थित सदस्यों के सभी अंदाज़े फैल होते देख अंततः जितेंद्र भाटिया जी को ही यह गुत्थी सुलझानी पड़ी।

अमेरिका की फ़िल्म अकादमी ने इस फ़िल्म को संरक्षित किया है। लेकिन पूरे पश्चिम में इसका छोटा संशोधित संस्करण ही प्रचलित है, वसुंधरा में इसका मूल 129 मिनट का संस्करण, एक मध्यांतर के साथ दिखाया गया।

कमेंट्स

यह फिल्म मैं दो तीन बार देख चुका हूं लेकिन फिर से देखना चाहता हूं। अब तक बिना सबटाइटल्स ही देखी है लेकिन इस फिल्म में भाषा कोई बाधा नहीं है, सत्यजित रे की सब फिल्मों की तरह।

– प्रेमचंद गाँधी 

लेखक का एकांत और उसकी पक्षधरता

जितेन्द्र भाटिया

इन्टरनेट के इस युग में लेखक की व्यक्तिगत और सामूहिक प्रतिबद्धता का सवाल काफी गड्डमड्ड हो चला है. इस नए माध्यम ने  हज़ारों, बल्कि लाखों तथाकथित नए लेखकों को जन्म दिया हैं जिनमें से अधिकाँश की महत्वाकांक्षा ‘फेसबुक’ के ‘लाइक’ या ‘डिसलाइक’ अथवा हँसते-रोते मुखड़ों या लाल रंग वाले दिल के ज़रिये समझी और नापी जाती है. ‘फेसबुक’ के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह आपकी मौलिकता को नष्ट कर आपको करोड़ों दूसरे लोगों की तरह हू- ब-हू एक जैसी मशीनी  ‘शार्ट कट’ भाषा में लिखने, व्यवहार में लाने और अंततः सोचने पर विवश करता है. इसके व्याकरण को स्वीकार किये बगैर आप इसमें प्रवेश नहीं कर सकते. इसी व्याकरण के ज़रिये आज साहित्य या बौद्धिक संवाद के नाम पर लाखों टन ‘सॉफ्ट’ कचरा हमारे लैपटॉप और फ़ोनों पर सवार, चारों दिशाओं में अनंत दूरियों तक फेंका जाने लगा है.

फैज़ अहमद ‘फैज़’ ने एक बार कहा था कि “लिखना बेशक बहुत समझदारी का काम सही, लेकिन बेवजह लिखते चले जाना ऐसी कोई ख़ास अक्लमंदी भी नहीं है!” इन्टरनेट आज सूचनाओं के साथ साथ इसी ‘बेवजह लिखे जाने’ का कूड़ादान भी बन गया है.

लेखक के लिखने या चुप रहने की वजहें गंभीर हो सकती हैं जिन्हें ‘फेसबुक’, ‘व्हाटसैप’ या ‘ट्विटर’ जैसे माध्यमों से तुरत फुरत नहीं निपटाया जा सकता. हमारे देश में लेखकों से जब पूछा जाता है कि वे क्यों लिखते हैं तो वे अक्सर अपने इर्दगिर्द सामाजिक दायित्व का मोटा टोपीदार लबादा पहन अपने आकार से कुछ और बड़े हो जाते हैं.  दरअसल लिखने की वजहों की तलाश कई तरीकों से हो सकती है. लेकिन अपनी समूची सामाजिकता के बावजूद कोई भी लेखक दूसरों से पहले, स्वयं अपने लिए लिखता है, कुछ उसी तरह जैसे हवाईजहाज़ में गड़बड़ी होने पर आपको दूसरों की मदद करने से पहले अपनी स्वयं की सीटबेल्ट बाँधने की सलाह दी जाती है.

समाजपरक लेखन सिर्फ वैचारिक संवाद ही नहीं, बल्कि एक अकेलेपन की भी मांग करता है और यह रास्ता महत्वाकांक्षा से विपरीत दिशा में जाता है. समकालीन परिदृश्य में मुझे निर्मल वर्मा और भीष्म साहनी को छोड़ इसके बहुत कम उदाहरण दिखाई देते हैं. जिस समाज को लेखक अपनी रचना का विषय बनाता है, उसी से एक फासला बना अपने निजी एकांत में वह रचनारत होता है. यह अनुशासन ज़रूरी भी है क्योंकि किसी चीज़ को बहुत नज़दीक या माइक्रोस्कोप तले देखने पर हमें उसके सूक्ष्म अन्तस्संबंध तो दिखाई दे जाते है, लेकिन उसका समूचा दृश्य या ‘पर्सपेक्टिव’ हमारी आँखों से ओझल हो जाता है. लेखकीय दृष्टि के लिए अन्तस्संबंध और ‘पर्सपेक्टिव’ या परिप्रेक्ष्य, दोनों का होना बेहद ज़रूरी होता है. 

इन्हीं दो का तीसरा आयाम लेखकीय स्मृति है! रूसी कवि एवं गद्यकार ओसिप मेंदल्स्ताम कहते हैं कि ‘याद रखना भी एक तरह का आविष्कार है. जो याद रखता है, उसे हम आविष्कारक मान सकते हैं!’  वे ‘स्मृति’ और ‘गवेषणा’ को कविता के सबसे ज़रूरी तत्व  मानते हैं. एक अन्य सन्दर्भ में हिंदी की एक लेखिका ने हमारे समय में रचनाकार और उसकी ‘स्मृति दरिद्रता’ का ज़िक्र किया है. लेखकीय संसार की यह विस्मृति या ‘अनुभव दरिद्रता’ एक तरह से क्षरण की निशानी है. ज्यों ज्यों हम बूढ़े होते जाते हैं और ज्यों ज्यों हमारी याददाश्त हमारा साथ छोड़ने लगती है, त्यों-त्यों हमारी स्मृतियाँ और प्रबल होती चली जाती हैं. दरअसल इन स्मृतियों के बहाने हम अपनी मृत्यु से लड़ रहे होते हैं.

अपने कालजयी लेख ‘साहित्य और स्मृति’ में चेक लेखक इवान क्लीमा अपने देश में वैचारिक स्वतंत्रता विहीन काले दौर का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि ‘वहां जब हर व्यक्ति नामालूम और विस्मृति के अँधेरे में डूबा हुआ लगता था, तब इस उलझन और संभ्रम से निजात पाने के लिए लिखना और ज़रूरी हो जाता था. लिखना ज़रूरी होता था उस मौत को चुनौती देने के लिए, जो अनेकानेक चेहरों में आती थी और जिसके स्पर्श मात्र से सच्चाई, मानव नियति, वास्तविकता और प्रतिरोध की शक्तियां टूटती सी दिखाई देने लगती थी. हम जी रहे थे वास्तविकता की उस स्मृति को ज़िंदा रखने के लिए, जो हर क्षण थोपी गयी आरोपित विस्मृति की दलदल में सदा के लिए धंसती दिखाई देने लगी थी.’

इसी बात को मिलान कुंडेरा अपने एक उपन्यास में ‘विस्मृति के राष्ट्रपति’ का बयान करते हुए कहते हैं—

देशों को नष्ट करने के लिए सबसे पहले उनकी स्मृति को लूट लिया जाता है. उनकी किताबों के साथ उनके ज्ञान, उनके इतिहास को नष्ट कर दिया जाता है. और फिर कोई नयी किताब लिखता है, नए ज्ञान की सीख देता है और एक भिन्न इतिहास का आविष्कार करता है!’

और जो कुछ देशों या प्रदेशों के साथ होता है, वही व्यक्तियों, हम सबके साथ भी घटित होता है. अपनी स्मृति को खो चुकने के बाद हम अंततः अपने आपको ही खो देते हैं. भूलना दरअसल मृत्यु का ही लक्षण है. और स्मृति के बगैर हम लेखक क्या, इंसान बनने के काबिल भी नहीं रह जाते.

देखा जाए अपने समय का लेखक लिखने की सारी वजहों को भी इन तीनों तत्वों —अन्तस्संबंध, परिप्रेक्ष्य और स्मृति-संसार में खोजता है. इवान क्लीमा के शब्दों में, ‘अपनी स्वयं की मृत्यु से आगे निकल जाने का संघर्ष ही लेखन या कि मनुषत्व का सार तत्व है. अस्तित्ववादी भावनाओं के मूल में भी यह अहसास है कि मृत्यु से हर चीज़ समाप्त नहीं होती. और एक लेखक के लिए तो हरगिज़ नहीं. मृत्यु का प्रतिरोध करते हुए वह दरअसल विस्मृति का विरोध कर रहा होता है. और इसका उलट भी सही है कि विस्मृति का प्रतिरोध एक तरह से मृत्यु का विरोध है. एक सच्ची साहित्यिक कृति सर्जक की पुरअसरार चीख बन हमारे सामने आती है. एक ऐसी यादगार चीख, जो सर्जक, उसके पूर्वजों, उसके समकालीनों और उसकी बोलचाल की भाषा पर मंडरा रहे विस्मृति के बादलों के प्रतिरोध में लेखक के गले से फूटती है. और विस्मृति के खिलाफ रची जाने वाली ऐसी कृति ही अंततः मौत या नश्वरता को चुनौती देने की क्षमता भी रखती है!’

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