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वर्तमान सामाजिक जीवन में एक स्त्री बनकर जीना…बन्धनों में रहना…बंद दरवाजों पर सर पटकना…बेवजह अन्याय, लांछनों के तमगे पहनना… फिर वह तो देहात में पली-बढ़ी थी, ऊपर से दलित…किन्तु परिस्थिति की भट्ठी में तप-निखर कर उसने जो ‘समझ’ पायी, उसी को कागज पर उतारने का नाम है- ‘आयदान’। उसकी माँ बाँस छीलकर आयदान बुनती थी, तो बेटी ने लेखनी का उपयोग किया। लेकिन धागे तो वही थे…पीड़ा के… माँ ने जो जीवन भर ढोया, उसी भोक्तव्य को अपने जीवन में भी उतरता देखने वाली लेखिका उर्मिला पवार, एक जाग्रत, सक्षम तथा संवेदनशील नारी की हैसियत से अपने अनुभवों का जब प्रकंटन करती हैं तब वह अभिव्यक्ति मराठी आत्मकथनों में अपनी छाप छोड़ जाती है।
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