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इन्टरनेट के इस युग में लेखक की व्यक्तिगत और सामूहिक प्रतिबद्धता का सवाल काफी गड्डमड्ड हो चला है. इस नए माध्यम ने हज़ारों, बल्कि लाखों तथाकथित नए लेखकों को जन्म दिया हैं जिनमें से अधिकाँश की महत्वाकांक्षा ‘फेसबुक’ के ‘लाइक’ या ‘डिसलाइक’ अथवा हँसते-रोते मुखड़ों या लाल रंग वाले दिल के ज़रिये समझी और नापी जाती है. ‘फेसबुक’ के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह आपकी मौलिकता को नष्ट कर आपको करोड़ों दूसरे लोगों की तरह हू- ब-हू एक जैसी मशीनी ‘शार्ट कट’ भाषा में लिखने, व्यवहार में लाने और अंततः सोचने पर विवश करता है. इसके व्याकरण को स्वीकार किये बगैर आप इसमें प्रवेश नहीं कर सकते. इसी व्याकरण के ज़रिये आज साहित्य या बौद्धिक संवाद के नाम पर लाखों टन ‘सॉफ्ट’ कचरा हमारे लैपटॉप और फ़ोनों पर सवार, चारों दिशाओं में अनंत दूरियों तक फेंका जाने लगा है.
फैज़ अहमद ‘फैज़’ ने एक बार कहा था कि “लिखना बेशक बहुत समझदारी का काम सही, लेकिन बेवजह लिखते चले जाना ऐसी कोई ख़ास अक्लमंदी भी नहीं है!” इन्टरनेट आज सूचनाओं के साथ साथ इसी ‘बेवजह लिखे जाने’ का कूड़ादान भी बन गया है.
लेखक के लिखने या चुप रहने की वजहें गंभीर हो सकती हैं जिन्हें ‘फेसबुक’, ‘व्हाटसैप’ या ‘ट्विटर’ जैसे माध्यमों से तुरत फुरत नहीं निपटाया जा सकता. हमारे देश में लेखकों से जब पूछा जाता है कि वे क्यों लिखते हैं तो वे अक्सर अपने इर्दगिर्द सामाजिक दायित्व का मोटा टोपीदार लबादा पहन अपने आकार से कुछ और बड़े हो जाते हैं. दरअसल लिखने की वजहों की तलाश कई तरीकों से हो सकती है. लेकिन अपनी समूची सामाजिकता के बावजूद कोई भी लेखक दूसरों से पहले, स्वयं अपने लिए लिखता है, कुछ उसी तरह जैसे हवाईजहाज़ में गड़बड़ी होने पर आपको दूसरों की मदद करने से पहले अपनी स्वयं की सीटबेल्ट बाँधने की सलाह दी जाती है.
समाजपरक लेखन सिर्फ वैचारिक संवाद ही नहीं, बल्कि एक अकेलेपन की भी मांग करता है और यह रास्ता महत्वाकांक्षा से विपरीत दिशा में जाता है. समकालीन परिदृश्य में मुझे निर्मल वर्मा और भीष्म साहनी को छोड़ इसके बहुत कम उदाहरण दिखाई देते हैं. जिस समाज को लेखक अपनी रचना का विषय बनाता है, उसी से एक फासला बना अपने निजी एकांत में वह रचनारत होता है. यह अनुशासन ज़रूरी भी है क्योंकि किसी चीज़ को बहुत नज़दीक या माइक्रोस्कोप तले देखने पर हमें उसके सूक्ष्म अन्तस्संबंध तो दिखाई दे जाते है, लेकिन उसका समूचा दृश्य या ‘पर्सपेक्टिव’ हमारी आँखों से ओझल हो जाता है. लेखकीय दृष्टि के लिए अन्तस्संबंध और ‘पर्सपेक्टिव’ या परिप्रेक्ष्य, दोनों का होना बेहद ज़रूरी होता है.
इन्हीं दो का तीसरा आयाम लेखकीय स्मृति है! रूसी कवि एवं गद्यकार ओसिप मेंदल्स्ताम कहते हैं कि ‘याद रखना भी एक तरह का आविष्कार है. जो याद रखता है, उसे हम आविष्कारक मान सकते हैं!’ वे ‘स्मृति’ और ‘गवेषणा’ को कविता के सबसे ज़रूरी तत्व मानते हैं. एक अन्य सन्दर्भ में हिंदी की एक लेखिका ने हमारे समय में रचनाकार और उसकी ‘स्मृति दरिद्रता’ का ज़िक्र किया है. लेखकीय संसार की यह विस्मृति या ‘अनुभव दरिद्रता’ एक तरह से क्षरण की निशानी है. ज्यों ज्यों हम बूढ़े होते जाते हैं और ज्यों ज्यों हमारी याददाश्त हमारा साथ छोड़ने लगती है, त्यों-त्यों हमारी स्मृतियाँ और प्रबल होती चली जाती हैं. दरअसल इन स्मृतियों के बहाने हम अपनी मृत्यु से लड़ रहे होते हैं.
अपने कालजयी लेख ‘साहित्य और स्मृति’ में चेक लेखक इवान क्लीमा अपने देश में वैचारिक स्वतंत्रता विहीन काले दौर का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि ‘वहां जब हर व्यक्ति नामालूम और विस्मृति के अँधेरे में डूबा हुआ लगता था, तब इस उलझन और संभ्रम से निजात पाने के लिए लिखना और ज़रूरी हो जाता था. लिखना ज़रूरी होता था उस मौत को चुनौती देने के लिए, जो अनेकानेक चेहरों में आती थी और जिसके स्पर्श मात्र से सच्चाई, मानव नियति, वास्तविकता और प्रतिरोध की शक्तियां टूटती सी दिखाई देने लगती थी. हम जी रहे थे वास्तविकता की उस स्मृति को ज़िंदा रखने के लिए, जो हर क्षण थोपी गयी आरोपित विस्मृति की दलदल में सदा के लिए धंसती दिखाई देने लगी थी.’
इसी बात को मिलान कुंडेरा अपने एक उपन्यास में ‘विस्मृति के राष्ट्रपति’ का बयान करते हुए कहते हैं—
‘देशों को नष्ट करने के लिए सबसे पहले उनकी स्मृति को लूट लिया जाता है. उनकी किताबों के साथ उनके ज्ञान, उनके इतिहास को नष्ट कर दिया जाता है. और फिर कोई नयी किताब लिखता है, नए ज्ञान की सीख देता है और एक भिन्न इतिहास का आविष्कार करता है!’
और जो कुछ देशों या प्रदेशों के साथ होता है, वही व्यक्तियों, हम सबके साथ भी घटित होता है. अपनी स्मृति को खो चुकने के बाद हम अंततः अपने आपको ही खो देते हैं. भूलना दरअसल मृत्यु का ही लक्षण है. और स्मृति के बगैर हम लेखक क्या, इंसान बनने के काबिल भी नहीं रह जाते.
देखा जाए अपने समय का लेखक लिखने की सारी वजहों को भी इन तीनों तत्वों —अन्तस्संबंध, परिप्रेक्ष्य और स्मृति-संसार में खोजता है. इवान क्लीमा के शब्दों में, ‘अपनी स्वयं की मृत्यु से आगे निकल जाने का संघर्ष ही लेखन या कि मनुषत्व का सार तत्व है. अस्तित्ववादी भावनाओं के मूल में भी यह अहसास है कि मृत्यु से हर चीज़ समाप्त नहीं होती. और एक लेखक के लिए तो हरगिज़ नहीं. मृत्यु का प्रतिरोध करते हुए वह दरअसल विस्मृति का विरोध कर रहा होता है. और इसका उलट भी सही है कि विस्मृति का प्रतिरोध एक तरह से मृत्यु का विरोध है. एक सच्ची साहित्यिक कृति सर्जक की पुरअसरार चीख बन हमारे सामने आती है. एक ऐसी यादगार चीख, जो सर्जक, उसके पूर्वजों, उसके समकालीनों और उसकी बोलचाल की भाषा पर मंडरा रहे विस्मृति के बादलों के प्रतिरोध में लेखक के गले से फूटती है. और विस्मृति के खिलाफ रची जाने वाली ऐसी कृति ही अंततः मौत या नश्वरता को चुनौती देने की क्षमता भी रखती है!’
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