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कुमार गंधर्व जब अपनी अनोखी शैली में गाते थें, तब अर्थ न समझते हुए भी हम भावविभोर हो ज़ाया करते थे । काफ़ी बाद में college में आने के बाद हमें बताया गया था कि उनका सिर्फ़ एक ही lung था, और ये शैली इसीलिए विकसित हुई । लेकिन आज इसी शैली में उन्हीं का ये कबीर भजन सुनने को मिला तो भावनाओं का अंबार उमड़ आया।
प्रेम के अनेक रूपों में ये भी एक है जब मौसिकी़ हमें सीधे ईश्वर से मिला देती है और हमारे बीच कोई रस्म-ओ-रिवाज़, कर्मकांड वग़ैरह के बंधन नहीं होते। यही तो भगवान कबीर के लफ़्ज़ों में कहलवा देते हैं न कि ‘ मोको कहॉं ढूँढे रे बंदे , मैं तो तेरे पास में!’
आज बनारस से पधारे हमारे मेहमान ने अपनी सुरीली आवाज़ में कबीर सुनाये। कबीर, कहीं चैती बनकर, तो कहीं कजरी में, कभी भोजपुरी में को कभी राजस्थान की दूरदराज की बोली में, कभी हुबहू तो कभी लोकरूप में ढलकर, हमारे कानों को अपना रसास्वादन कराते रहे और हम उनका साक्षात्कार करते रहे ।
संगत के लिए हमारे अपने सुरीले बेहतरीन वायलिन के उस्ताद गुलज़ार भाई और उन्हीं के छोटे भाई तबले पर , दोनों ने क्या समॉं बॉंध दिया श, वाह! कुल मिलाकर एक बेहद ख़ूबसूरत शाम गुजरी आज ।
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